भगवान श्रीकृष्ण का जीवन मनुष्य जाति के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में ऐसी अनेक लीलाएं की, जिसमें लाइफ मैनेजमेंट के बहुत ही गहरे सूत्र छिपे हैं।
इसलिए बढ़ गई थी द्रौपदी की साड़ी
द्रौपदी का चीरहरण होते समय भगवान ने उसकी सहायता की और उसकी साड़ी को इतना बढ़ा दिया कि दु:शासन उतार न सका। इसके पीछे क्या कारण है कि कृष्ण ने द्रौपदी की सहायता की।
महाभारत में इस बात का जवाब है। बात उस समय की है जब पांडवों ने हस्तिनापुर से अलग होकर अपने लिए इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया। भगवान कृष्ण के मार्गदर्शन में ही सारा निर्माण हुआ। उसके बाद युधिष्ठिर का राजतिलक करके राजसूय यज्ञ किया गया। इसमें दुनियाभर के राजाओं ने भाग लिया। यज्ञ में अग्रपूजा की बात आई। पंडितों ने युधिष्ठिर से कहा कि सबसे पहले वे किसकी पूजा करेंगे। भीष्म के कहने पर भगवान कृष्ण का नाम अग्रपूजा के लिए तय हुआ।
लगभग सभी राजा इसके लिए तैयार थे, लेकिन कृष्ण की बुआ का बेटा शिशुपाल इसके लिए तैयार नहीं था। उसका कहना था कि राजाओं की सभा में एक ग्वाले की अग्रपूजा करना सभी राजाओं का अपमान करने जैसा है। उसने कृष्ण को गालियां देना शुरू कर दिया। शिशुपाल के जन्म के समय ही यह भविष्यवाणी हो चुकी थी कि इसकी मौत कृष्ण के हाथों होगी, लेकिन कृष्ण ने अपनी बुआ को ये भरोसा दिलाया था कि वे सौ बार शिशुपाल से अपना अपमान सहन करेंगे।
इसके बाद ही उसका वध करेंगे। सभा में शिशुपाल ने सारी मर्यादाएं तोड़ दी और अनेकों बार कृष्ण का अपमान किया। सौ बार पूरा होते ही कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध कर दिया। चक्र के प्रयोग से उनकी उंगली कट गई और उसमें से खून बहने लगा। तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ कर कृष्ण की उंगली पर बांध दिया। उस समय कृष्ण ने द्रौपदी को वचन दिया था कि इस कपड़े के एक-एक धागे का कर्ज वे समय आने पर चुकाएंगे। यह ऋण उन्होंने चीरहरण के समय चुकाया।
इसलिए गोवर्धन पर्वत उठाया कृष्ण ने
महाभारत काल में वर्षा ऋतु के बाद गांवों में देवराज इंद्र का आभार प्रकट करने के लिए यज्ञ किए जाते थे। इंद्र मेघों के देवता हैं और उन्हीं के आदेश से मेघ यानी बादल धरती पर पानी बरसाते हैं। हमेशा मेघ पानी बरसाते रहें, जिससे गांव और शहरों में अकाल जैसी स्थिति ना बने, इसके लिए यज्ञ के जरिए इंद्र को प्रसन्न किया जाता था। ब्रज मंडल में भी उस दिन ऐसे ही यज्ञ का आयोजन था। लोगों का मेला लगा देख, यज्ञ की तैयारियों को देख कृष्ण ने पिता नंद से पूछा कि ये क्या हो रहा है।
नंद ने उन्हें यज्ञ के बारे में बताया। कृष्ण ने कहा इंद्र को प्रसन्न रखने के लिए यज्ञ क्यों? पानी बरसाना तो मेघों का कर्तव्य है और उन्हें आदेश देना इंद्र का कर्तव्य। ऐसे में उनको प्रसन्न करने का सवाल ही कैसे उठता है? ये तो उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए रिश्वत देने जैसी बात है। ब्रजवासियों ने कृष्ण को समझाया कि अगर यज्ञ नहीं हुआ तो इंद्र क्रोधित हो जाएंगे। इससे पूरे ब्रजमंडल पर संकट आ सकता है। कृष्ण ने कहा कि अगर पूजा और यज्ञ ही करना है तो गोवर्धन पर्वत का किया जाना चाहिए, क्योंकि वो बिना किसी प्रतिफल की आशा में हमारे पशुओं का भरण-पोषण करता है, हमें औषधियां देता है।
बहुत बहस के बाद ब्रजवासी कृष्ण की बात से सहमत हो गए और उन्होंने इंद्र के यज्ञ की बजाय गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी। इससे इंद्र क्रोधित हो गए और उन्होंने पूरे ब्रजमंडल पर भयंकर बरसात शुरू कर दी। ब्रजवासी डर गए। नदियां, तालाब सभी उफन गए। बाढ़ आ गई। ब्रज डूबने लगा और लोगों के प्राण संकट में आ गए। सभी ने कृष्ण से कहा कि देखो तुम्हारे कहने पर इंद्र को नाराज किया तो उसने कैसा प्रलय मचा दिया है। अब ये गोवर्धन हमारी रक्षा करेगा क्या? कृष्ण ने कहा – हां, यही गोवर्धन हमारी रक्षा करेगा। कृष्ण ने अपने दाहिने हाथ की छोटी उंगली पर गोवर्धन को उठा लिया। सारे गांव वाले उसके नीचे आ गए।
वे बारिश की बौछारों से बच गए। भगवान ने ग्वालों से कहा कि सभी मेरी तरह गोवर्धन को उठाने में सहायता करो। अपनी-अपनी लाठियों का सहारा दो। ग्वालों ने अपनी लाठियां गोवर्धन से टिका दी। इंद्र को हार माननी पड़ी। उसका अहंकार नष्ट हो गया। वो कृष्ण की शरण में आ गया। भगवान ने उसे समझाया कि अपने कर्तव्यों के पालन के लिए किसी प्रतिफल की आशा नहीं करनी चाहिए। जो हमारा कर्तव्य है, उसे बिना किसी लालच के पूरा करना चाहिए।
कृष्ण ने द्वारिका को राजधानी के लिए क्यों चुना?
मथुरा में कंस वध के बाद भगवान कृष्ण को वसुदेव और देवकी ने शिक्षा ग्रहण करने के लिए अवंतिका नगरी (वर्तमान में मध्यप्रदेश के उज्जैन) में गुरु सांदीपनि के पास भेजा। बड़े भाई बलराम के साथ श्रीकृष्ण पढ़ने के लिए आ गए। यहीं पर सुदामा से उनकी मित्रता हुई। शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब गुरुदक्षिणा की बात आई तो ऋषि सांदीपनि ने कृष्ण से कहा कि तुमसे क्या मांगू, संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तुमसे मांगी जाए और तुम न दे सको। कृष्ण ने कहा कि आप मुझसे कुछ भी मांग लीजिए, मैं लाकर दूंगा। तभी गुरु दक्षिणा पूरी हो पाएगी।
ऋषि सांदीपनि ने कहा कि शंखासुर नाम का एक दैत्य मेरे पुत्र को उठाकर ले गया है। उसे लौटा लाओ। कृष्ण ने गुरु पुत्र को लौटा लाने का वचन दे दिया और बलराम के साथ उसे खोजने निकल पड़े। खोजते-खोजते सागर किनारे तक आ गए। यह प्रभास क्षेत्र था। जहां चंद्रमा की प्रभा यानी चमक समान होती थी। समुद्र से पूछने पर उसने भगवान को बताया कि पंचज जाति का दैत्य शंख के रूप में समुद्र में छिपा है। हो सकता है कि उसी ने आपके गुरु पुत्र को खाया हो। भगवान ने समुद्र में जाकर शंखासुर को मारकर उसके पेट में अपने गुरु पुत्र को खोजा, लेकिन वो नहीं मिला। तब श्रीकृष्ण यमलोक गए।
श्रीकृष्ण ने यमराज से अपने गुरु पुत्र को वापस ले लिया और गुरु सांदीपनि को उनका पुत्र लौटाकर गुरु दक्षिणा पूरी की। भगवान कृष्ण ने तभी प्रभास क्षेत्र को पहचान लिया था। यहां बाद में उन्होंने द्वारिका पुरी का निर्माण किया। भगवान ने प्रभास क्षेत्र की विशेषता देखी। उन्होंने तभी विचार कर लिया था कि समुद्र के बीच में बसाया गया नगर सुरक्षित हो सकता है। जरासंघ ने 17 बार मथुरा पर आक्रमण किया। उसके बाद कालयवन के साथ मिलकर फिर हमला बोला। तब कृष्ण ने प्रभास क्षेत्र में द्वारिका निर्माण का निर्णय लिया ताकि मथुरावासी आराम से वहां रह सकें। कोई भी राक्षस या राजा उन पर आक्रमण न कर सके।
जब कृष्ण ने खेल-खेल में किया यमुना को प्रदूषण मुक्त
एक बार श्रीकृष्ण मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद से खेल रहे थे। भगवान ने जोर से गेंद फेंकी और वो यमुना में जा गिरी। भारी होने से वो सीधे यमुना के तल पर चली गई। मित्रों ने कृष्ण को कोसना शुरू किया। कहने लगे कि तुमने गेंद को यमुना में फेंका है, तुम ही बाहर लेकर आओ। समस्या यह थी कि उस समय यमुना में कालिया नाग रहता था। पांच फनों वाला नाग बहुत खतरनाक और विषधर था। उसके विष से यमुना काली हो रही थी और उसी जहर के कारण गोकुल के पशु यमुना का पानी पीकर मर रहे थे। कालिया नाग गरूड़ के डर से यमुना में छिपा था।
कान्हा बहुत छोटे थे, लेकिन मित्रों के जोर के कारण उन्होंने तय किया कि गेंद वो ही निकाल कर लाएंगे। कान्हा ने यमुना में छलांग लगा दी। सीधे तल में पहुंच गए। वहां कालिया नाग अपनी पत्नियों के साथ रह रहा था। कान्हा ने उसे यमुना छोड़कर सागर में जाने के लिए कहा, लेकिन वो नहीं माना और अपने विष से उन पर प्रहार करने लगा। कृष्ण ने कालिया नाग की पूंछ पकड़कर उसे मारना शुरू कर दिया। बहुत देर हो गई तो मित्रों को चिंता होने लगी। उन्हें गलती का एहसास हुआ और वे रोने-चिल्लाने लगे। कुछ दौड़ कर नंद-यशोदा और अन्य गोकुलवासियों को बुला लाए। यमुना के किनारे सभी चिल्लाने लगे।
यशोदा सहित सभी औरतें रोने लगीं। इधर, कृष्ण और कालिया नाग का युद्ध जारी था। भगवान ने उसके फन पर चढ़कर उसका सारा विष निकाल दिया। विषहीन होने और थक जाने पर कालिया नाग ने भगवान से हार मानकर उनसे माफी मांगी। श्रीकृष्ण ने उसे पत्नियों सहित सागर में जाने का आदेश दिया। खुद कालिया नाग भगवान को अपने फन पर सवार करके यमुना के तल से ऊपर लेकर आया। गोकुलवासियों को शांति मिली। कालिया नाग चला गया। यमुना को उसके विष से मुक्ति मिल गई।
कृष्ण से सीखिए कैसी तैयारी हो युद्ध में जाने की?
महाभारत युद्ध में भीष्म के तीरों की शय्या पर सो जाने के बाद गुरु द्रोणाचार्य को कौरव सेना का सेनापति नियुक्त किया गया। द्रोण को हराना मुश्किल होता जा रहा था और वो पांडवों की सेना को लगातार खत्म कर रहे थे। ऐसे में सभी पांडव भाई कृष्ण की शरण में आए। उन्होंने कृष्ण से पूछा कि गुरु द्रोण को कैसे रोका जाए? तब कृष्ण ने एक युक्ति सुझाई। उन्होंने कहा कि अवंतिका नगरी के राजपुत्रों विंद और अनुविंद की सेना में अश्वत्थामा नाम का हाथी है। उसे खोजकर मारा जाए और गुरु द्रोण तक ये संदेश पहुंचाया जाए कि अश्वत्थामा मारा गया।
अश्वत्थामा द्रोण के पुत्र का भी नाम था, जो उन्हें बहुत प्रिय था। भीम ने उस हाथी को खोजकर मार डाला और गुरु द्रोण के सामने चिल्लाने लगा कि मैंने अश्वत्थामा को मार दिया। गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर से पूछा तो उन्होंने कहा कि अश्वत्थामा मरा है, वो हाथी है या नर, ये पता नहीं। इस पर गुरु द्रोण ध्यान लगाकर अपनी शक्ति से ये पता लगाने के लिए बैठे और धृष्टधुम्न ने उनको मार दिया।
जब अर्जुन के लिए कृष्ण ने सहे कर्ण के तीर
महाभारत युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने-सामने थे। युद्ध रोमांचक होता जा रहा था। दोनों योद्धा एक-दूसरे पर शक्तियों का प्रयोग कर रहे थे। कर्ण ने अर्जुन को हराने के लिए सर्प बाण के उपयोग करने का विचार किया। इस बाण को कर्ण ने वर्षों से संभाल कर रखा था। पाताललोक में अश्वसेन नाम का नाग था, जो अर्जुन को अपना शत्रु मानता था। खांडव वन में अर्जुन ने उसकी माता का वध किया था। अश्वसेन तभी से अर्जुन को मारने के लिए मौके की तलाश में था। कर्ण को सर्प बाण का संधान करते देख अश्वसेन खुद बाण पर विराजित हो गया। कर्ण ने अर्जुन पर निशाना साधा। अर्जुन का रथ चला रहे भगवान कृष्ण ने अश्वसेन को पहचान लिया।
अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए भगवान ने अपने पैरों से रथ को दबा दिया। रथ के पहिए जमीन में धंस गए। घोड़े बैठ गए और तीर अर्जुन के गले की बजाय उसके मस्तक पर जा लगा। इससे उसका मुकुट छिटककर धरती पर जा गिरा। अर्जुन और भगवान कृष्ण रथ के धंसे पहिए निकालने के लिए नीचे उतरे। तभी मौका देखकर कर्ण ने अर्जुन पर वार शुरू कर दिया और कृष्ण को 12 तीर मारे। अर्जुन की रक्षा के लिए भगवान ने वो तीर भी अपने ऊपर झेल लिए। भगवान ने अर्जुन को अश्वसेन के बारे में बताया। अर्जुन ने छह तीरों से अश्वसेन के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
कृष्ण ने सिखाया हमेशा होना चाहिए प्लान बी
एक बार भगवान कृष्ण ग्वालों के साथ गाएं चराते हुए बहुत दूर तक निकल गए। उन्हें भूख लगने लगी। आसपास कोई साधन नहीं था। उन्होंने ग्वालों से कहा कि पास ही एक यज्ञ का आयोजन हो रहा है। वहां जाओ और भोजन मांग कर ले आओ। ग्वालों ने वैसा ही किया। वे यज्ञ मंडप में गए और वहां भोजन की मांग की। ग्वालों ने कहा कि नंद पुत्र कृष्ण थोड़ी दूरी पर ठहरे हुए हैं, उन्हें भूख लगी है। थोड़ा भोजन दे दीजिए। यज्ञ का आयोजन कर रहे ब्राह्मणों ने भोजन देने से मना कर दिया। उनका मत था कि जब तक यज्ञ देवता को भोग न लग जाए तब तक किसी को भोजन नहीं दे सकते।
ग्वाले लौट आए। कृष्ण ने उनसे पूछा कि भोजन क्यों नहीं लाए तो ग्वालों ने ब्राह्मणों की बात उनसे कह दी। कृष्ण ने उनसे कहा एक बार फिर जाकर मांगो शायद इस बार भोजन मिल जाए। ग्वालों ने फिर वैसा ही किया, लेकिन फिर वही जवाब लेकर खाली हाथ लौट आए। भगवान ने कहा एक बार फिर जाओ। इस बार ब्राह्मणों से नहीं, उनकी पत्नियों से भोजन मांगना। ग्वालों ने कहा वे भी वही जवाब देंगी, जो उनके पतियों ने दिया है। कृष्ण ने कहा – नहीं, वे मुझे चाहती हैं, वे तुम्हें भोजन अवश्य देंगी। ग्वालों ने वैसा ही किया। ब्राह्मण की पत्नियों से कृष्ण के लिए भोजन मांगा तो वे तत्काल उनके साथ भोजन लेकर वहां आ गईं, जहां कृष्ण ठहरे थे।
सबने प्रेम से भोजन किया। ब्राह्मण पत्नियों ने कृष्ण को अपने हाथों से परोसा और भोजन कराया। ग्वाले इस बात से हैरान थे। भोजन करके सभी तृप्त हो गए। ये कहानी बहुत साधारण और छोटी है, लेकिन इसके पीछे का संदेश बहुत ही काम का है। कृष्ण ने ग्वालों को बार-बार भोजन लेने भेजा। आखिरी बार को छोड़कर हर बार निराशा ही हाथ लगी। कृष्ण कह रहे हैं कि व्यक्ति को कभी प्रयास करना नहीं छोड़ने चाहिए। सफलता के लिए लगातार प्रयास करते रहें, लेकिन अगर एक ही प्रयास में बार-बार असफलता मिले तो खुद की योजना पर भी विचार आवश्यक है।
जब अश्वत्थामा ने मांग लिया कृष्ण का सुदर्शन चक्र
एक बार पांडव और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा द्वारिका पहुंच गया। भगवान कृष्ण ने उसका बहुत स्वागत किया और उसे अतिथि के रूप में अपने महल में ठहराया। कुछ दिन वहां रहने के बाद एक दिन अश्वत्थामा ने श्रीकृष्ण से कहा कि वो उसका अजेय ब्रह्मास्त्र लेकर उसे अपना सुदर्शन चक्र दे दें। भगवान ने कहा ठीक है, मेरे किसी भी अस्त्र में से जो तुम चाहो, वो उठा लो। मुझे तुमसे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए। अश्वत्थामा ने भगवान के सुदर्शन चक्र को उठाने का प्रयास किया, लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ।
उसने कई बार प्रयास किया, लेकिन हर बार उसे असफलता मिली। उसने हारकर भगवान से चक्र न लेने की बात कही। भगवान ने उसे समझाया कि अतिथि की अपनी सीमा होती है। उसे कभी वो चीजें नहीं मांगनी चाहिए जो उसके सामर्थ्य से बाहर हो। श्रीकृष्ण ने कहा कि ये चक्र मुझे अत्यंत प्रिय है। इसे 12 साल तक घोर तपस्या करने के बाद पाया है, उसे तुमने ऐसे ही मांग लिया। बिना किसी प्रयास के। अश्वत्थामा बहुत शर्मिंदा हुआ। वह बिना किसी शस्त्र-अस्त्र को लिए ही द्वारिका से चला गया।
जब अर्जुन ने कृष्ण के विरोध में दिया ब्राह्मण का साथ
द्वारिका में भगवान कृष्ण की राजसभा का नाम था सुधर्मा सभा। एक दिन सुधर्मा सभा में भगवान कृष्ण के साथ अर्जुन भी बैठे हुए थे। तभी एक ब्राह्मण आकर भगवान कृष्ण को उलाहने देने लगा। ब्राह्मण के घर जब भी कोई संतान होती, वो पैदा होते ही मर जाती थी। ब्राह्मण ने कृष्ण पर आरोप लगाया कि तुम्हारे छल-कपट भरे कामों के कारण द्वारिका में नवजात बच्चों की मौत हो जाती है। भगवान कृष्ण चुप रहे। ब्राह्मण लगातार भगवान पर आरोप लगाता रहा। यह देख रहे अर्जुन से रहा नहीं गया।
उसने ब्राह्मण से कहा कि वो भगवान पर आरोप लगाना बंद करे। वो उसके पुत्र की रक्षा करेगा। कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि ये सब नियति का खेल है, इसमें हस्तक्षेप न करे, लेकिन अर्जुन ने भगवान कृष्ण की बात नहीं मानी और उसने ब्राह्मण को वचन दे दिया कि वो उसके बच्चों को यमराज से बचाएगा। अगर नहीं बचा पाया तो वो खुद भी प्राण त्याग कर देगा। ब्राह्मण लौट गया। जब उसकी पत्नी को बच्चा होने वाला था, ब्राह्मण अर्जुन के पास पहुंचा। अर्जुन ने ब्राह्मण के घर की घेराबंदी कर दी, लेकिन जैसे ही बच्चे ने जन्म लिया, यमदूत नवजात बच्चे के प्राण को लेकर चले गए।
अर्जुन बालक के प्राण बचा नहीं सका। ब्राह्मण उसे धिक्कारने लगा। अर्जुन बालक के प्राणों के लेने के लिए यमपुरी तक गया, लेकिन बालक को नहीं बचा सका। वचन का पालन करने के लिए अर्जुन ने अपने प्राण त्यागने का प्रण किया। ये बात भगवान को पता लगी। वे अर्जुन के पास पहुंचे। अर्जुन प्राण त्यागने के लिए तैयार था। भगवान ने उसे समझाया। वे अर्जुन को लेकर अपने धाम गए। वहां पर अर्जुन ने देखा कि ब्राह्मण के सारे बच्चे भगवान की शरण में हैं। भगवान ने अर्जुन को समझाया कि कभी बिना सोचे-समझे किसी को कोई वचन नहीं देना चाहिए। फिर भगवान ने अर्जुन को बचाने के लिए ब्राह्मण पुत्रों के प्राण यमराज से लौटा लिए।
जब भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को फटकारा
महाभारत युद्ध का आखिरी दिन था। दुर्योधन कुरुक्षेत्र स्थित तालाब में जाकर छुप गया। सारी कौरव सेना समाप्त हो चुकी थी। दुर्योधन के अलावा कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कृतवर्मा ही कौरव सेना में शेष बचे थे। पांडव दुर्योधन को खोजते हुए उस तालाब के किनारे पहुंचे। तालाब में छिपे दुर्योधन से युधिष्ठिर ने बात की। दुर्योधन ने कहा कि तुम पांच भाई हो और मैं अकेला हूं। हममें युद्ध कैसे हो सकता है? तो युधिष्ठिर ने दुर्योधन से कहा कि हम पांचों तुम्हारे साथ नहीं लड़ेंगे। तुम हममें से किसी एक को युद्ध के लिए चुन लो। अगर तुमने उसे हरा दिया तो हम तुम्हें युद्ध में जीता मानकर राज्य तुम्हें सौंप देंगे।
युधिष्ठिर की बात सुन श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा कि तुमने ये क्या किया? इतने भीषण युद्ध के बाद हाथ आई जीत को हार में बदल लिया। ये युद्ध है, इसमें जुए का नियम मत लगाओ। अगर दुर्योधन ने नकुल, सहदेव में से किसी एक को युद्ध के लिए चुन लिया तो वे प्राणों से भी जाएंगे और हमारे हाथ से वो राज्य भी चला जाएगा।
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