वेद हमारी सबसी प्रचीन किताबें है, यह कहना गलत नहीं होगा कि वेद वास्तव में परमात्मा की ही अनमोल वाणी है, जो मानवों को जीना सिखाती है। आज हम आप सभी को वेदों के 15 श्लोक बतायेंगे जो हमारे जीवन से जुडे हुए हैं।
Veda Shloka About Life in Hindi :-
।। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्।। (ऋग्वेद 10.181.2)
अर्थात: साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करो जिस पर पूर्वज चले हैं।
दार्शनिकों, संतों, साहित्यकारों, नीतिज्ञों और वैज्ञानिकों के विचारों को पढ़कर जीवन में बहुत लाभ मिलता है। मौर्यकाल में जहां नीतिज्ञों में चाणक्य का नाम विख्यात था, वहीं दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों में पाणिनी और पतंजलि का नाम सम्मान के साथ लिया जाता था। वैज्ञानिकों में पिङ्गल, वाग्भट्ट, जीवक आदि महान वैज्ञानिक थे। हालांकि इसके पूर्व महाभारत काल में तो और भी महानतम लोग थे।
पहला श्लोक :
।।ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।। -ऋग्वेद
अर्थ : उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
इस मंत्र या ऋग्वेद के पहले वाक्य का निरंतर ध्यान करते रहने से व्यक्ति की बुद्धि में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाता है। उसका जीवन अचानक ही बदलना शुरू हो जाता है। यदि व्यक्ति किसी भी प्रकार से शराब, मांस और क्रोध आदि बुरे कर्मों का प्रयोग करता है तो उतनी ही तेजी से उसका पतन भी हो जाता है। यह पवित्र और चमत्कारिक श्लोक है। इसका ध्यान करने से पूर्व नियम और शर्तों को समझ लें।
दूसरा श्लोक :
।।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।14।। -कठोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थ : (हे मनुष्यों) उठो, जागो (सचेत हो जाओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) करके ज्ञान प्राप्त करो। त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लांघने में कठिन) धारा के (के सदृश) दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।
तीसरा श्लोक :
।।प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं। तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।
अर्थ : जिसने प्रथम अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया, तृतीय अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चतुर्थ अर्थात संन्यास आश्रम में क्या करेगा?
चौथा श्लोक :
।।विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।रुग्णस्य चौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
अर्थात : प्रवास की मित्र विद्या, घर की मित्र पत्नी, मरीजों की मित्र औषधि और मृत्योपरांत मित्र धर्म ही होता है।
पांचवां श्लोक :
।।ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।
अर्थात : हे ईश्वर (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।उक्त प्रार्थना करते रहने से व्यक्ति के जीवन से अंधकार मिट जाता है। अर्थात नकारात्मक विचार हटकर सकारात्मक विचारों का जन्म होता है।
छठा श्लोक:
।। ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।19।। (कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थात : परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें। उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है।
सातवां श्लोक :
।। मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।। (अथर्ववेद 3.30.3)
अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें। उक्त तरह की भावना रखने से कभी गृहकलय नहीं होता और संयुक्त परिवार में रहकर व्यक्ति शांतिमय जीवन जी कर सर्वांगिण उन्नती करता रहता।
आठवां श्लोक :
।।यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा विभेः।।1।।- अथर्ववेद
अर्थ : जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो। अर्थात व्यक्ति को कभी किसी भी प्रकार का भय नहीं पालना चाहिए। भय से जहां शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं वहीं मानसिक रोग भी जन्मते हैं। डरे हुए व्यक्ति का कभी किसी भी प्रकार का विकास नहीं होता। संयम के साथ निर्भिकता होना जरूरी है। डर सिर्फ ईश्वर का रखें।
नौवां श्लोक :
।।अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
अर्थ : आलसी को विद्या कहां, अनपढ़ या मूर्ख को धन कहां, निर्धन को मित्र कहां और अमित्र को सुख कहां।
दसवां श्लोक :
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही (उनका) सबसे बड़ा शत्रु होता है। परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा) कोई अन्य मित्र नहीं होता,क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता।
ग्यारहवां श्लोक :
।।शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद्
अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है।
अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पहला सुख निरोगी काया।
बारहवां श्लोक :
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। (सामवेद 11.5.19)
अर्थ : ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की।
अर्थात : मानसिक और शारीरिक शक्ति का संचय करके रखना जरूरी है। इस शक्ति के बल पर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। शक्तिहिन मनुष्य तो किसी भी कारण से मुत्यु को प्राप्त कर जाता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ और इसके महत्व को समझना जरूरी है।
तेरहवां श्लोक:
।। गुणानामन्तरं प्रायस्तज्ञो वेत्ति न चापरम्। मालतीमल्लिकाऽऽमोदं घ्राणं वेत्ति न लोचनम्।।
अर्थ : गुणों, विशेषताओं में अंतर प्रायः विशेषज्ञों, ज्ञानीजनों द्वारा ही जाना जाता है, दूसरों के द्वारा कदापि नहीं। जिस प्रकार चमेली की गंध नाक से ही जानी जा सकती है, आंख द्वारा कभी नहीं।
चौदववां श्लोक :
।। येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग।
अर्थात : जिस मनुष्य ने किसी भी प्रकार से विद्या अध्ययन नहीं किया, न ही उसने व्रत और तप किया, थोड़ा बहुत अन्न-वस्त्र-धन या विद्या दान नहीं दिया, न उसमें किसी भी प्राकार का ज्ञान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है। ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार होते हैं। मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के समान जीवन व्यतीत करते हैं।
पन्द्रवां श्लोक :
।।सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
अर्थ : अचानक (आवेश में आकर बिना सोचे-समझे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए, कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है। (इसके विपरीत) जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।
More Stories
Chandra Grahan 2023: शरद पूर्णिमा का त्यौहार पड़ेगा साल के आखिरी चंद्र ग्रहण के साये में; रखें इन बातों का ख्याल !
Palmistry: हथेली पर शुक्र पर्वत आपके भाग्य को दर्शाता है, इससे अपने भविष्य का आकलन करें।
Solar Eclipse 2023: साल का आखिरी सूर्य ग्रहण कल, जानिए किस राशि पर बरसेगा पैसा और किसे रहना होगा सावधान!