विवाह हिंदू धर्म के संस्कारों में से एक है। हमारे धर्म ग्रंथों में विवाह से संबंधित अनेक नियम बताए गए हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं। कन्या का विवाह करते समय माता-पिता को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए या समय पर विवाह न होने की स्थिति में कन्या को क्या करना चाहिए आदि बातों के विषय में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को काफी विस्तार से बताया है। इसका वर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है।
आप भी जानिए विवाह से संबंधित इन बातों के बारे में :-
- कन्या के पिता को सबसे पहले वर के स्वभाव, आचरण, विद्या, कुल-मर्यादा और कार्यों की जांच करना चाहिए। यदि वह इन सभी बातों से सुयोग्य प्रतीत हो तो उसे कन्या देना चाहिए अन्यथा नहीं। इस प्रकार योग्य वर को बुलाकर उसके साथ कन्या का विवाह करना उत्तम ब्राह्मणों का धर्म ब्राह्म विवाह है।
- जो कन्या माता की सपिण्ड (माता के परिवार से) और पिता के गोत्र की न हो, उसी के साथ विवाह करना श्रेष्ठ माना गया है।
- अपने माता-पिता के द्वारा पसंद किए गए वर को छोड़कर कन्या जिसे पसंद करती हो तथा जो कन्या को चाहता हो, ऐसे वर के साथ कन्या का विवाह करना गंधर्व विवाह कहा गया है। (आधुनिक संदर्भ में ये लव मैरिज का ही पुरातन स्वरूप है)
- जो दहेज आदि के द्वारा वर को अनुकूल करके कन्यादान किया जाता है, यह श्रेष्ठ क्षत्रियों का सनातन धर्म -क्षात्र विवाह कहलाता है। कन्या के बंधु-बांधवों को लोभ में डालकर बहुत-सा धन देकर जो कन्या को खरीद लिया जाता है, इसे असुरों का धर्म (आसुर विवाह) कहते हैं।
- कन्या के माता-पिता व अन्य परिजनों को मारकर रोती हुई कन्या के साथ जबरदस्ती विवाह करना राक्षस विवाह करना कहलाता है। महाभारत के अनुसार, ब्राह्म, क्षात्र, गांधर्व, आसुर और राक्षस विवाहों में से पूर्व के तीन विवाह धर्म के अनुसार हैं और शेष दो पापमय हैं। आसुर और राक्षस विवाह कदापि नहीं करने चाहिए।
- महाभारत के अनुसार, यदि माता-पिता ऋतुमती होने के पहले कन्या का विवाह न करें तो ऋतुमती होने के पश्चात तीन वर्ष तक कन्या अपना विवाह होने का इंतजार करे, चौथा वर्ष लगने पर स्वयं ही किसी को अपना पति बना ले। ऐसा करने से वह कन्या निंदा करने योग्य नहीं मानी जाएगी। (वर्तमान समय में ये तथ्य प्रासंगिक नहीं है)
- अयोग्य वर को कन्या नहीं देनी चाहिए क्योंकि सुयोग्य पुरुष को कन्यादान करना ही काम संबंधी सुख तथा सुयोग्य संतान की उत्पत्ति का कारण है। कन्या को खरीदने-बेचने में बहुत तरह के दोष हैं, केवल कीमत देने या लेने से ही कोई कन्या किसी की पत्नी नहीं हो सकती।
- कन्या का दान ही सर्वश्रेष्ठ है, खरीदकर या जीतकर लाना नहीं। कन्यादान ही विवाह कहलाता है। जो लोग कीमत देकर खरीदने या बलपूर्वक हर लाने को ही पतित्व का कारण मानते हैं, वे धर्म को नहीं जानते। खरीदने वालों को कन्या नहीं देनी चाहिए तथा जो बेची जा रही हो, ऐसी कन्या से विवाह नहीं करना चाहिए क्योंकि पत्नी खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है।
- कन्या का पाणिग्रहण होने से पहले का वैवाहिक मंगलाचार (सगाई, टीका आदि) हो जाने पर भी यदि दूसरे सुयोग्य वर को कन्या दे दी जाए तो पिता को केवल झूठ बोलने का पाप लगता है (पाणिग्रहण से पूर्व कन्या विवाहित नहीं मानी जाती)।
- सप्तपदी के सातवें पद में वैवाहिक मंत्रों की समाप्ति होती है अर्थात सप्तपदी की विधि पूर्ण होने पर ही कन्या में पत्नीत्व की सिद्धि होती है। जिस पुरुष को जल से संकल्प करके कन्या दी जाती है, वही उसका पाणिग्रहीता पति होता है और उसी की वह पत्नी कहलाती है। इस प्रकार विद्वानों ने कन्यादान की विधि बतलाई है।
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